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आजादी की शौर्यगाथा(खुदीराम बोस)

Independence Day 2023: एक ऐसा नौजवान जो 18 साल की उम्र में हो गया देश के लिए शहीद, जानिए खुदीराम बोस के बारे में

बंगाल विभाजन के विरोध में अपनी 9वीं कक्षा की पढ़ाई छोड़ बहुत ही कम उम्र में खुदीराम बोस स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गए थे.

Khudiram Bose: हमारे देश को लंबे संघर्ष के बाद अंग्रेजों की गुलामी से आजादी मिली. पूरा देश आजादी  का जश्न मना रहा है. आजादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में हम देश के लिए संघर्ष करने और हंसते-हंसते खुद को कुर्बान कर देने वाले नायकों को याद कर रहे हैं. ऐसे ही एक नायक हुए  क्रांतिकारी खुदीराम बोस, जिनके बारे में हम अपने इस आर्टिकल में बताएंगे-

खुदीराम बोस  जन्म 3 दिसम्बर 1889 11अगस्त 1908 ) भारतीय स्वाधीनता के लिये मात्र 18 साल की उम्र में भारतवर्ष की स्वतन्त्रता के लिए फाँसी पर चढ़ गये।

कुछ इतिहासकारों की यह धारणा है कि वे अपने देश के लिये फाँसी पर चढ़ने वाले सबसे कम उम्र के ज्वलन्त तथा युवा क्रान्तिकारी देशभक्त थे। लेकिन खुदीराम से पूर्व 17 जनवरी 1872 को 68 कूकाओं के सार्वजनिक नरसंहार के समय 13 वर्ष का एक बालक भी शहीद हुआ था। उपलब्ध तथ्यानुसार उस बालक को, जिसका नंबर 50वाँ था, जैसे ही तोप के सामने लाया गया, उसने लुधियाना के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर कावन की दाढ़ी कसकर पकड़ ली और तब तक नहीं छोड़ी जब तक उसके दोनों हाथ तलवार से काट नहीं दिये गए बाद में उसे उसी तलवार से मौत के घाट उतार दिया गया था। 

अंग्रेज अत्याचारियों पर पहला बम

30 अप्रैल 1908 को ये दोनों नियोजित काम के लिये बाहर निकले और किंग्जफोर्ड के बँगले के बाहर घोड़ागाड़ी से उसके आने की राह देखने लगे। बँगले की निगरानी हेतु वहाँ मौजूद पुलिस के गुप्तचरों ने उन्हें हटाना भी चाहा परन्तु वे दोनो उन्हें योग्य उत्तर देकर वहीं रुके रहे। रात में साढ़े आठ बजे के आसपास क्लब से किंग्जफोर्ड की बग्घी के समान दिखने वाली गाडी आते हुए देखकर खुदीराम गाडी के पीछे भागने लगे। रास्ते में बहुत ही अँधेरा था। गाडी किंग्जफोर्ड के बँगले के सामने आते ही खुदीराम ने अँधेरे में ही आने वाली बग्घी पर निशाना लगाकर जोर से बम फेंका। हिन्दुस्तान में इस पहले बम विस्फोट की आवाज उस रात तीन मील तक सुनाई दी और कुछ दिनों बाद तो उसकी आवाज इंग्लैंड तथा योरोप में भी सुनी गयी जब वहाँ इस घटना की खबर ने तहलका मचा दिया। यूँ तो खुदीराम ने किंग्जफोर्ड की गाड़ी समझकर बम फेंका था परन्तु उस दिन किंग्जफोर्ड थोड़ी देर से क्लब से बाहर आने के कारण बच गया। दैवयोग से गाडियाँ एक जैसी होने के कारण दो यूरोपीय स्त्रियों को अपने प्राण गँवाने पड़े। खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार दोनों ही रातों-रात नंगे पैर भागते हुए गये और 24 मील दूर स्थित वैनी रेलवे स्टेशन पर जाकर ही विश्राम किया।

गिरफ्तारी

अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गयी जैसे ही वैनी रेलवे स्टेशन पर खुदीराम पहुंचे वहा मौजूद दो सिपाहिकर्मी जिनके नाम फतेह सिंग और शेव पार्षद थे उन्हें खुदीराम के चाल चलन पर तब शक हुआ जब वो किसी चाय की दुकान पर पानी मांग रहा था साथ ही उसके मैले कपड़े और थकान की वजह। इतना कुछ देखने पर वे उनके नजदीक गए उन्होंने खुदीराम से कुछ सवाल पूछे कई जवाब ठीक से ना मिलने से दोनो का शक गहराता गया,उन्होंने उसको झप लिया खुदीराम ने उनसे छुड़ाने का काफी प्रयास किया लेकिन वो विफल रहा और आखिरकार पकड लिया गया। इधर दूसरी ओर अपने सहकर्मी खुदीराम से बिछड़ ने के बाद प्रफुल्लकुमार काफी दूर तक भागने में कामयाब रहे तकरीबन दोपहर के वक्त एक व्यक्ति त्रिगुणचर्न घोष ने उन्हें अपनी और भागते हुए देखा उन्हें बमबारी के घटना के बारेमे जानकारी मिल चुकी थी और समझ चुके थे की यह शख्स उन क्रांतिकारियों में से है। उन्होंने उसे पनाह देने का फैसला किया उसी रात वो खुद प्रफुल्ल के साथ रेलवे स्टेशन कोलकाता छोड़ने निकले हावड़ा के नजदीक आने के बाद ब्रिटिश सब-इंस्पेक्टर बनर्जी भी उसी ट्रेन में सवार थे। कुछ देर बाद उन्हें प्रफुल्ल के असलियत के बारेमे पता चला प्रफुल्ल भी समझ चुके थे की वो घिर चुका है। पकड़ में आने से पहले ही वे वहा से भाग निकला लेकिन अपने आप को चारो ओर घिरा देख प्रफुल्लकुमार चाकी ने खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी। और यहा खुदीराम के गिरफ्तार होने के कुछ दिन बाद 11 अगस्त 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फाँसी दे दी गयी। उस समय उनकी उम्र मात्र 18+ वर्ष थी।

फाँसी का आलिंगन

दूसरे दिन सन्देह होने पर प्रफुल्लकुमार चाकी को पुलिस पकडने गयी, तब उन्होंने स्वयं पर गोली चलाकर अपने प्राणार्पण कर दिये। खुदीराम को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी का अन्त निश्चित ही था। 11 अगस्त 1908 को भगवद्गीता हाथ में लेकर खुदीराम धैर्य के साथ खुशी-खुशी फाँसी चढ़ गये। किंग्जफोर्ड ने घबराकर नौकरी छोड दी और जिन क्रान्तिकारियों को उसने कष्ट दिया था उनके भय से उसकी शीघ्र ही मौत भी हो गयी।

फाँसी के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गये कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। इतिहासवेत्ता शिरोल के अनुसार बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिये वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। कई दिन तक स्कूल कालेज सभी बन्द रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे, जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।

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