सुमित्रा बताती हैं कि झारखंड में अन्धविश्वास के चलते बच्चों के जन्म के बाद गर्भनाल काटने को लेकर कई कुरीतियों थी साफ सफाई का भी ध्यान नहीं रखा जाता था। इसलिए नवजात बच्चो की मृत्युदर बहुत ज्यादा थी। इसके बाद बाद सुमित्रा और अन्य साथियों ने महिलाओं को खेल खेल के माध्यम से जागरूक मॉडल का जिक्र विख्यात मेडिकल जर्नल लांसेट में भी किया गया था। एकजुट के प्रयासों से नवजात मृत्यु दर में 45 फीसदी तक कमी आई हैं। इसके अलावा महिलाओं के प्रति हिंसा में कमी के साथ पोषण के लेकर भी जागरूकता आई है।
झारखंड में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार की संख्या काफी ज्यादा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों की मानें तो पिछले कुछ सालों के अंदर झारखंड में महिलाओं को डायन समझकर उनको मारने की संख्या में वृद्धि हुई है। स्थानीय भाषा में इसको डायन बिसाही कहते हैं। हालांकि दूसरी तरफ कई क्षेत्रों में सकारात्मक बदलाव भी आए हैं। शिशु मृत्यु दर में सुधार हुआ है। पहले जहां हर 1000 बच्चों में 44 बच्चों की मौत होती थी। अब यह संख्या प्रति 1000 बच्चों में 29 पर आ गई है। झारखंड के सुदूर जनजातीय अंचलों में काम करने वाली सुमित्रा गगरई का कहना है कि हालात तो सुधरें हैं, पर अभी भी ऐसी कई जगह हैं, जहां पर काम करने की सख्त जरूरत है। सुमित्रा महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर पिछले लंबे समय से काम कर रही हैं। उन्होंने पिछले 12 वर्षों के दौरान मानसिक स्वास्थ्य के अलावा महिलाओं-बच्चों के पोषण, हिंसा और शिशु मृत्यु दर की दिशा में कई सकारात्मक कार्य किए हैं।
31 साल की सुमित्रा झारखंड की ‘हो’ जनजाति से आती हैं। खुद भी गरीबी में जीवन बीता। सुमित्रा बताती हैं कि 16 साल की उनकी बहन मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही थी। इलाज हुआ, लेकिन जागरूकता के अभाव में घर से सहयोग नहीं मिला। उनकी बहन ने डिप्रेशन में आकर ट्रेन के सामने कूदकर आत्महत्या कर ली थी। उस घटना के बाद उनका जीवन बदल गया। सुमित्रा कहती हैं कि झारखंड के ग्रामीण इलाकों में आज भी अंधविश्वास बहुत ज्यादा है। महिलाएं तीन-तीन दिन तक प्रसव पीड़ा झेलती रहती हैं। हर चीज का इलाज झाड़-फूंक में पहले ढूंढा जाता है। इस सबको बदलने के लिए सुमित्रा झारखंड के दर्जनों गावों में घूम-घूमकर नुक्ककड़ नाटक, कहानी के माध्यम से महिलाओं को जागरूक कर रही हैं। वह महिलाओं को खेल-खेल में अपनी समस्याएं बताने के लिए प्रेरित करती हैं।