आज 18 जून रानी लक्ष्मीबाई की पुनः तिथि हैं, वैसे तो भारत का हर बच्चा – बच्चा उनके बारे में जनता हैं , उनकी वीरता की कथाएं हम सब सुन राखी हैं | आज उनकी वीरता के कुछ पल याद करते हैं |
रानी लक्ष्मीबाई पर एक प्रसिद्ध कविता सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखी है, जिसका शीर्षक “झांसी की रानी” है। यह कविता उनकी वीरता और साहस का जीवंत चित्रण करती है। यहाँ इस कविता का कुछ अंश प्रस्तुत है:
सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में आई फिर से नई जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।कानपूर के नाना की मुँहबोली बहन छबीली थी, लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की वीली थी। नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी, बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। वीर शिवाजी की गाथाएँ उसको याद ज़बानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कहते हैं झाँसी वाली रानी मर गई वह खोट है, मर्दों के दिल भी दहलें, ऐसा उसका जोरोट है। दुश्मन की फौजों के पाँव उखड़ कर भाग खड़ी होतीं, भाले के अटके पर जब वो तलवार गिराती थी। तोपों की टंकारों में भी, उसकी गरज सुहानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
रानी लक्ष्मीबाई, जिन्हें झांसी की रानी भी कहा जाता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक महान योद्धा थीं। उनकी वीरता और साहस की कहानी भारतीय इतिहास में अमर है। यहाँ रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानी का संक्षिप्त विवरण है:
प्रारंभिक जीवन -: रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को काशी (अब वाराणसी) में हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था और प्यार से लोग उन्हें “मनु” कहते थे। उनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भगवती बाई था। मणिकर्णिका की शिक्षा और युद्धकला में रुचि बचपन से ही दिखाई देने लगी थी।
विवाह और झांसी की रानी बनना – :14 साल की उम्र में उनका विवाह झांसी के महाराजा गंगाधर राव से हुआ और वे झांसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। उन्होंने अपने पुत्र को गोद लिया, जिसका नाम दामोदर राव था।
विद्रोह की शुरुआत – :1857 का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है, के दौरान रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। अंग्रेजों ने ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ नीति के तहत झांसी को हड़पने का प्रयास किया, जिससे रानी लक्ष्मीबाई अत्यंत क्रोधित हुईं और उन्होंने अंग्रेजों से लड़ने का निश्चय किया।
युद्ध और वीरता – :रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी सेना को संगठित किया और युद्ध कला में पारंगत होकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा संभाला। मार्च 1858 में अंग्रेजों ने झांसी पर हमला किया। रानी लक्ष्मीबाई ने अपने किले की रक्षा के लिए अद्वितीय साहस का प्रदर्शन किया। उन्होंने अपनी छोटी सेना के साथ अंग्रेजों की बड़ी सेना का सामना किया।
अंतिम युद्ध और बलिदान – :18 जून 1858 को, ग्वालियर के पास कोटा की सराय में रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के साथ अंतिम युद्ध लड़ा। वे युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुईं, लेकिन उनकी वीरता और संघर्ष ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में उन्हें अमर बना दिया।
विरासत – : रानी लक्ष्मीबाई की वीरता और बलिदान भारतीय जनता के लिए प्रेरणा का स्रोत बना। उनके साहसिक कार्यों ने न केवल उस समय के लोगों को प्रेरित किया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित किया। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे प्रतिष्ठित नायिकाओं में से एक मानी जाती हैं।
रानी लक्ष्मीबाई की कहानी एक प्रतीक है, जो दिखाती है कि कैसे एक नारी अपने आत्मसम्मान, अपने राज्य और अपने देश की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने से भी पीछे नहीं हटती।